ख्वाहिशें तो ऐसी ,छू लूं आसमां,
और उससे भी आगे जाके ,
खोजूँ हरी का धाम !
छूती तो हूँ आसमां,हवाई जहाज में बैठ के ;
पर उस से आगे जाऊँ कैसे ?
हवाई जहाज तो बन्द होता है !
हरी ने तो मुझे पंख नहीं दिए ,और ना ही वो ज्ञान ;
जिस से पाऊँ मैं हरी का धाम !
"बेला" सोचे,चलो ऐसा करें:
मेरी सौरभ पहुँचा दूं हरी के धाम ;:
शायद उसी सौरभ-डोरी से मुझे भी
खींच ले अपने धाम !!!
बेला
२८-३-२०१२ /११.५५.ए.एम्.
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