मैं मैदान में खड़ी हूँ |
सामने पर्वत के पीछे से
सूर्य किरणों की आभा दिख रही है ;
जैसे मयुरने अपने पंख फैलाये है !
निरभ्र केसरी आकाश में
फूटी हुई ये किरणें
और पंखेरुओं की उड़ती
काली काली टोली लग रही है;
मानो,सूर्य के गले में माला !
सुंदर ये छबि !काश!
"बेला"कागज पे उतार सकती ?!
वो तो मुग्ध बनके
डोल सकती है |
दिल में छिपा के अनेक अभिलाषाएँ|
दिन चडेगा,आशाएँ मुस्कुरायेगी;
फूल पे शबनम की तरह |
पर ,
सूर्य के प्रखर ताप में ;
क्या ये हँस के पार जा पायेगी ?
या झुलस के रह जायेगी ?
बेला
७ जून २०१२
यु.एस.ए.
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