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मन: स्थिति


ये मेरे संगीत के साथी श्री रविंद्र खरात जी की मातुश्री के निधन पर लिखी है 

                                        
-----माँ ! आज इतनी निस्पृह कैसे बनी ? ! 
-----माँ  ! आज इतनी कठोर कैसे बनी ? ! 
-----तू तो हमेशा स्नेहार्द्र झरने सी बहती थी ,
-----मुझ पर प्रेम-धार बरसाती थी ;
-----माँ ! आज यूँ कैसे निराधार छोड़ चली ? ! 

-----समझ गया मैं ,सुर-श्याम ने तुझे  फुसलाई ,
-----वो मोहन ,जग लुटेरा ;तू उसमे लुभाई | 
-----ठीक है माँ ! वो गोलोक की तेरी सवारी ----,
-----ओ 'अनंत रास-लीला से तेरी सगाई ;
----- माँ ! मैं  मान लूंगा , रह के यहाँ  अभागी ! ! 

-----रास्ता तो कठिन नहीं था न तेरा ?
-----वैतरणी भी आसानी  से पार की होगी,---
-----जैसे संसार पार किया तूने हंसमुखी ! 
-----वो राह तो होगी तेरे लिए बिछात फूलों की ;
-----माँ ! यहाँ  की फ़िक्र मत करना,
-----अब तो तू बन गई है "शान्तिनि" | 

----- माँ ! अब न कोई फरियाद है ,
-----जो हुआ , मान लिया , हुआ सही ,
-----"बेला"के फूल और धुप से ;
-----रोज पूजूंगा तेरी छबि ! 
                                  १०\९\२०१९ 
                                         २..५० ए।एम्। 

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-----घर भी सूना ,मन भी सूना ,सुनी है हर पल ,
-----बंध नयन में देखु माँ ! तेरी आँखें निःचल ! 
-----कभी हवा के झोंको में ,सुनी आवाझ तेरी चंचल ,
-----उठा, दौड़ा, भरने बाँहो  मे ,  फिर हुआ विकल ! | 
                                                     ११\९\२०१९ 
                                                             ११.४५  पि.एम् 

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