नीसरी है वो , पिता पर्वत की गॉद से ,
झरझर झरती ,कूदती ,फुदकती अल्लड मौज से ;
छोटे मोटे पत्थर से टकराती , इतराती नर्तन से ,
बह चली फिर धुँआधार धोध के रूप में --
गिरी, कंदरा से , कण कण में मेघधनु समाये ,
सुंदर ,मन लुभावन, अ प्रतीम दृश्य बनाते ;
मुनिजन देखें ब्रह्म ,हर बून्द बून्द में ,,
कविगण कविता में क्या क्या चित्र बनाये !
सरती चली ,अन्य सहेलियों के संग में ,
दौड़ी कलकल करती ,औ " लिपटी धरती माँ की गॉद में ;
ओढी चुनरिया पत्र-पुष्प, पूजन के शृंगार से ,
चली रुणझुणती , शर्मीली अभिसारिका उमंग से |
समा गई , प्रियतम सागर की उत्स्फुरित लहरों में ,
देख "बेला" हरषी ,पवित्र पावन गंगा सागर के मिलन से |
१४ ऑगस्ट २०२३
३. ०० ए ऍम
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